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संयुक्त राष्ट्र संघ का दीवालियापन
Opinion

संयुक्त राष्ट्र संघ का दीवालियापन

खबर परेशान करने वाली है। संयुक्त राष्ट्र संघ दीवालिया हो रहा है। हालाँकि उसकी सदस्य-संख्या पूरी दुनिया के देशों की संख्या के बराबर है, अमीर-गरीब सभी देश उसके सदस्य हैं, लेकिन तकलीफ यह है कि ज्यादातर देश वक्त पर संघ को अपना हिस्सा नहीं देते। गोया सं. रा. संघ न हो गया, किसी हाउसिंग कालोनी की वेलफेयर समिति या यूनियन हो गई मजदूरों की, जिसका चंदा देना हमेशा अखरता है । यूनियन वाले तो फिर भी वेतन वाले दिन सिर पर आकर खड़े हो जाते हैं और कुछ-न-कुछ तो वसूल कर ही लेते हैं। अब हम संघ के पदाधिकारियों से यह उम्मीद तो नहीं ही कर सकते कि वे सूट-बूट डाटे चंदे की कापी लिए एक-एक देश की राजधानी में चक्कर लगाते फिरें। उस हालत में तो उसका कल के बजाय आज ही दीवाला पिट जाएगा।

संघ की हालत इतनी खराब है कि उसे अपनी स्टाफ-संख्या में अच्छी-खासी कटौती करनी पड़ रही है। तकलीफ की बात यह भी है कि छंटनी की तलवार तीन-चार सौ भारतीयों पर भी लटक रही है। वक्त पर चंदा न देने वालों में अमेरिका का नाम सबसे ऊपर है। अब बेचारी अमेरिकी सरकार भी क्या करे। अपने पिछले दिनों के लफड़ों के चलते उसकी खुद की हालत इतनी पतली थी कि कई-कई दिन तक कामकाज ठप रहा। वेतन तक का जुगाड़ करने के लिए उन्हें एड़ी-चोटी (अमेरिकी लोग चोटी तो रखते नहीं इसलिए यह मुहावरा यहाँ फिट नहीं बैठेगा, खैर) का जोर लगाना पड़ गया था। अब वे अपनी दाल-रोटी को रोएँ या खा-खा के अघाये संघ की परवाह करें।

वैसे संघ ने अपने खर्चों में कटौतियों के कुछ नायाब तरीके खोजे हैं। उम्मीद है, इनसे वे काफी बचत कर लेंगे। बहुत दूर की कौड़ी खोजी है उन्होंने। अब वे अपनी बैठकों में पेंसिल-कागज नहीं देंगे। एजेंडा की प्रतियाँ नहीं देंगे। अलबत्ता, प्रतिनिधियों को पिछली बैठक में चर्चा हो चुकी मदों वाली एजेंडा की प्रतियाँ देंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वहाँ पिछले पचास सालों से उन्हीं मदों पर ही चर्चा हो रही हैं। अगर कोई एजेंडा न भी दें तो भी चलेगा। सबको एजेंडा की सारी मदें याद होंगी। संघ को चाहिए कि यहाँ दिए जा रहे सुझावों पर भी गौर फरमाएँ । अच्छी-खासी बचत हो जाया करेगी। कम-से-कम दीवालिया होने से तो बच ही जायेंगे।

कागज-पेंसिल न देने की बात वे कर ही चुके। उन्हें चाहिए पिन-कुशन भी हटा लें। अपने सभी सदस्यों को बता दें कि वे अपने देश से चलते समय कोट में पाँच-सात आल पिन खोंस लाया करें। पानी पीकर आया करें। हाँ, जो शानदार लंच दिया जाता है, उसे जारी रखा जाए, सिर्फ दाँत कुरेदनी देनी बंद कर दी जाए। वे अपने कोट में खुंसे आलपिन से ही दाँत कुरेदने का काम लें।

इसके अलावा सम्मानित सदस्यों से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे अपने होटल से नाश्ता करके आये होंगे और थोड़ी देर में लंच भी सूतेंगे, तो फिर चाय-कॉफी के साथ तीन-चार बिस्किट देने की क्या जरूरत है। न दिये जायें या कम किए जाएं। उनकी जेब में रूमाल भी होगा। तो पेपर नैपकिन पर फालतू खर्च क्यों किया जाए।

इन मदों में काफी बचत की जा सकती है। ये जो एक अशांत देश के सैनिकों को दूसरे अशांत देश में शांति सेना के रूप में भेजने का नया शगूफा संघ ने पिछले कुछ सालों से शुरू किया है, इस महँगे धंधे को तुरन्त बंद कर दिया जाए। इससे सदस्य देशों को, चाहे वे शांत हो अशांत, काफी राहत  मिलेगी। वैसे भी, भूखे-प्यासे सैनिक अशांत देशों में शांति बाद में कायम करते हैं, वहाँ की स्थानीय शांतियों और शांताओं से एड्स का आदान-प्रदान पहले करते हैं। कई-कई बार तो पूरी शांति सेना ही अपने साथ एड्स का यह प्रसाद लेकर लौटती है और अपने देश का नाम रोशन करती है।

हम जानते हैं कि हमारी संसद के कारोबार को चलाने का खर्च हज़ारों रुपए प्रति मिनट बैठता है। हम यह भी जानते हैं कि वहाँ प्रत्येक मिनट, घंटे, दिन, महीने और वर्ष का सदुपयोग कितनी अच्छी तरह से किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रत्येक मिनट की भी कीमत लाखों डालर में होगी। हमारे नेता और उनकी पार्टियाँ ज़रूर चंदे से चलती हैं, लेकिन संसद चंदे से नहीं चलती, इसलिए हम उसे बंद नहीं कर सकते। संयुक्त राष्ट्र संघ न भी चले तो भी किसी देश की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। वह है तो उसने किस देश को धाँधलेबाजी करने से रोक लिया है? जिन गरीब देशों के चंदे से अमीर देशों के प्रतिनिधि शैंपेन उड़ा रहे हैं, कम-से-कम उन्हें तो राहत मिलेगी। हाँ, हमारे तीन-चार सौ भारतीय ज़रूर बेरोज़गार हो जायेंगे।

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