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Famous Hindi poet, story writer & Journalist Sarveshwar dayal saxena
Literature / Persona

हिन्दी कवि एवं साहित्यकार – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Famous Hindi Poet & Writer Sarveshwar Dayal Saxena
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता।

हिन्दी कवि एवं साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता। सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है।

सन 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए। 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने। नवंबर 1982 में पराग का संपादन संभालने के बाद वे मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे।

आइये पढ़ते हैं उनकी प्रसिद्द एवं मर्मस्पर्शी बाल कथा – सफ़ेद गुड़

दुकान पर सफेद गुड़ रखा था। दुर्लभ था। उसे देखकर बार-बार उसके मुँह से पानी आ जाता था। आते-जाते वह ललचाई नजरों से गुड़ की ओर देखता, फिर मन मसोसकर रह जाता।

आखिरकार उसने हिम्मत की और घर जाकर माँ से कहा। माँ बैठी फटे कपड़े सिल रही थी। उसने आँख उठाकर कुछ देर दीन दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर ऊपर आसमान की ओर देखने लगी और बड़ी देर तक देखती रही। बोली कुछ नहीं। वह चुपचाप माँ के पास से चला गया। जब माँ के पास पैसे नहीं होते तो वह इसी तरह देखती थी। वह यह जानता था।

वह बहुत देर गुमसुम बैठा रहा, उसे अपने वे साथी याद आ रहे थे जो उसे चिढ़-चिढ़ाकर गुड़ खा रहे थे। ज्यों-ज्यों उसे उनकी याद आती, उसके भीतर गुड़ खाने की लालसा और तेज होती जाती। एकाध बार उसके मन में माँ के बटुए से पैसे चुराने का भी ख्याल आया। यह ख्याल आते ही वह अपने को धिक्कारने लगा और इस बुरे ख्याल के लिए ईश्वर से क्षमा माँगने लगा।

उसकी उम्र ग्यारह साल की थी। घर में माँ के सिवा कोई नहीं था। हालाँकि माँ कहती थी कि वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ ईश्वर है। वह चूँकि माँ का कहना मानता था इसलिए उसकी यह बात भी मान लेता था। लेकिन ईश्वर के होने का उसे पता नहीं चलता था। माँ उसे तरह-तरह से ईश्वर के होने का यकीन दिलाती। जब वह बीमार होती, तकलीफ में कराहती तो ईश्वर का नाम लेती और जब अच्छी हो जाती तो ईश्वर को धन्यवाद देती। दोनों घंटों आँख बंद कर बैठते। बिना पूजा किए हुए वे खाना नहीं खाते। वह रोज सुबह-शाम अपनी छोटी-सी घंटी लेकर, पालथी मारकर संध्या करता। उसे संध्या के सारे मंत्र याद थे, उस समय से ही जब उसकी जबान तोतली थी। अब तो यह साफ बोलने लगा था।

वे एक छोटे-से कस्बे में रहते थे। माँ एक स्कूल में अध्यापिका थी। बचपन से ही वह ऐसी कहानियाँ माँ के सुनता था। जिनमें यह बताया जाता था कि ईश्वर अपने भक्तों का कितना ख्याल रखते हैं। और हर बार ऐसी कहानी सुनकर वह ईश्वर का सच्चा भक्त बनने की इच्छा से भर जाता। दूसरे भी उसके पीठ ठोंकते, और कहते, ‘बड़ा शरीफ लड़का है। ईश्वर उसकी मदद करेगा।’ वह भी जानता कि ईश्वर उसकी मदद करेगा। लेकिन कभी इसका कोई सबूत उसे नहीं मिला था।

उस दिन जब वह सफेद गुड़ खाने के लिए बेचैन था तब उसे ईश्वर याद आया। उसने खुद को धिक्कारा, उसे माँ से पैसे माँगकर माँ को दुखी नहीं करना चाहिए था। ईश्वर किस दिन के लिए है? ईश्वर का ख्याल आते ही वह खुश हो गया। उसके अंदर एक विचित्र-सा उत्साह आ गया। क्योंकि वह जनता था कि ईश्वर सबसे अधिक ताकतवर है। वह सब जगह है और सब कुछ कर सकता है। ऐसा कुछ भी नहीं जो वह न कर सके। तो क्या वह थोड़ा-सा गुड़ नहीं दिला सकता? उसे जो कि बचपन से ही उसकी पूजा करता आ रहा है और जिसने कभी कोई बुरा काम नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, किसी को सताया नहीं। उसने सोचा और इस भाव से भर उठा कि ईश्वर जरूर उसे गुड़ देगा।

वह तेजी से उठा और घर के अकेले कोने में पूजा करने बैठ गया। तभी माँ ने आवाज दी, ‘बेटा, पूजा से उठने के बाद बाजार से नमक ले आना।’

उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसकी पुकार सुन ली है। वरना पूजा पर बैठते ही माँ उसे बाजार जाने को क्यों कहती। उसने ध्यान लगाकर पूजा की, फिर पैसे और झोला लेकर बाजार की ओर चल दिया।

घर से निकलते ही उसे खेत पार करने पड़ते थे, फिर गाँव की गली जो ईंटों की बनी हुई हुई थी, फिर बाजार की ओर चल दिया।

उस समय शाम हो गई थी। सूरज डूब रहा था। वह खेतों में चला जा रहा था, आँखें आधी बंद किए, ईश्वर पर ध्यान लगाए और संध्या के मंत्रो को बार-बार दोहराते हुए। उसे याद नहीं उसने कितनी देर में खेत पार किए, लेकिन जब वह गाँव की ईंटों की गली में आया तब सूरज डूब चुका था और अंधेरा छाने लगा था। लोग अपने-अपने घरों में थे। धुआँ उठ रहा था। चौपाए खामोश खड़े थे। नीम सर्दी के दिन थे।

उसने पूरी आँख खोलकर बाहर का कुछ भी देखने की कोशिश नहीं की। वह अपने भीतर देख रहा था जहाँ अँधेरे में एक झिलमिलाता प्रकाश था। ईश्वर का प्रकाश और उस प्रकाश के आगे वह आँखें बंद किए मंत्रपाठ कर रहा था।

अचानक उसे अजान की आवाज सुनाई दी। गाँव के सिरे पर एक छोटी-सी मस्जिद थी। उसने थोड़ी-सी आँखें खोलकर देखा। अँधेरा काफी गाढ़ा हो गया था। मस्जिद के एक कमरे बराबर दालान में लोग नमाज के लिए इकट्ठे होने लगे थे। उसके भीतर एक लहर-सी आई। उसके पैर ठिठक गए। आँखें पूरी बंद हो गईं। वह मन-ही-मन कह उठा, ‘ईश्वर यदि तुम हो और सच्चे मन से तुम्हारी पूजा की है तो मुझे पैसे दो, यहीं इसी वक्त।’

वह वहीं गली में बैठ गया। उसने जमीन पर हाथ रखा। जमीन ठंडी थी। हाथों के नीचे कुछ चिकना-सा महसूस हुआ। उल्लास की बिजली-सी उसके शरीर में दौड़ गई। उसने आँखें खोलकर देखा। अँधेरे में उसकी हथेली में अठन्नी दमक रही थी। वह मन-ही-मन ईश्वर के चरणों में लोट गया। खुशी के समुद्र में झूलने लगा। उसने उस अठन्नी को बार-बार निहारा, चूमा, माथे से लगाया। क्योंकि वह एक अठन्नी ही नहीं था। उस गरीब पर ईश्वर की कृपा थी। उसकी सारी पूजा और सच्चाई का ईश्वर की ओर से इनाम था। ईश्वर जरूर है, उसका मन चिल्लाने लगा। भगवान मैं तुम्हारा बहुत छोटा-सा सेवक हूँ। मैं सारा जीवन तुम्हारी भक्ति करूँगा। मुझे कभी मत बिसराना। उलटे-सीधे शब्दों में उसने मन-ही-मन कहा और बाजार की तरफ दौड़ पड़ा। अठन्नी उसने जोर से हथेली में दबा रखी थी।

जब वह दुकान पर पहुँचा तो लालटेन जल चुकी थी। पंसारी उसके सामने हाथ जोड़े बैठा था। थोड़ी देर में उसने आँख खोली और पूछा, ‘क्या चाहिए?’

उसने हथेली में चमकती अठन्नी देखी और बोला, ‘आठ आने का सफेद गुड़।’

यह कहकर उसने गर्व से अठन्नी पंसारी की तरफ गद्दी पर फेंकी। पर यह गद्दी पर न गिर उसके सामने रखे धनिए के डिब्बे में गिर गई। पंसारी ने उसे डिब्बे में टटोला पर उसमें अठन्नी नहीं मिली। एक छोटा-सा खपड़ा (चिकना पत्थर) जरूर था जिसे पंसारी ने निकाल कर फेंक दिया।

उसका चेहरा एकदम से काला पड़ गया। सिर घूम गया। जैसे शरीर का खून निकाल गया हो। आँखें छलछला आईं।

‘कहाँ गई अठन्नी!’ पंसारी ने भी हैरत से कहा।

उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगा। देखते-देखते सबसे ताकतवर ईश्वर की उसके सामने मौत हो गई थी। उसने मरे हाथों से जेब से पैसे निकाले, नमक लिया और जाने लगा।

दुकानदार ने उसे उदास देखकर कहा, ‘गुड़ ले लो, पैसे फिर आ जाएँगे।’

‘नहीं।’ उसने कहा और रो पड़ा।

‘अच्छा पैसे मत देना। मेरी ओर से थोड़ा-सा गुड़ ले लो।’ दुकानदार ने प्यार से कहा और एक टुकड़ा तोड़कर उसे देने लगा। उसने मुँह फिरा लिया और चल दिया। उसने ईश्वर से माँगा था, दुकानदार से नहीं। दूसरों की दया उसे नहीं चाहिए।

लेकिन अब वह ईश्वर से कुछ नहीं माँगता।
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जीवन परिचय

15 सितम्बर सन् 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। वाराणसी तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत आपने अध्यापन तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य किया। आप आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे। यद्यपि आपका साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ तथापि ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख ख़ासे लोकप्रिय रहे। सन् 1983 में आपको अपने कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। आपकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। कविता के अतिरिक्त आपने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। 24 सितम्बर 1983 को हिन्दी का यह लाडला सपूत आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुआ।

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