खूँटियों पर टंगे लोग – एक समीक्षा एवं कविता ‘देशगान’
Khuntiyon Par Tange Log by Sarveshwar Dayal Saxena- A review & poem Deshgaan
उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में 15 सितंबर, 1927 को जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने वाराणसी तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने अध्यापन तथा पत्रकारिता को अपनाय। जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया।यद्यपि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ तथापि ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे। सन 1983 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
खूँटियों पर टंगे लोग स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का सातवाँ काव्य-संग्रह है, जिसमें शामिल अधिकतर कविताएँ 1976-1981 के बीच लिखी गई हैं | इन कविताओं में नियति और स्थिति को स्वीकार कर लेने की व्यापक पीड़ा है | यह पीड़ा कवि के आत्म से शुरू होकर समाज तक जाती है और फिर समाज से कवि के आत्म तक आती है और इस तरह कवि और समाज को पृथक न कर, एक करती हुई उसके काव्य-व्यक्तित्व को विराट कर जाती है |
सम्प्रेषण की सहजता सर्वेश्वर की कविताओं का मुख्य गुण रहा है और इसकी कलात्मक साध इस संग्रह में और निखरी है | एक समर्थ कवि के स्पर्श से चीजें वह नहीं रह जातीं जो हैं-कोट, दस्ताने, स्वेटर सब-के-सब युग की चुनौतियों से टकराकर क्रांति, विद्रोह और विरोध से जुड़ जाते हैं | प्रतीकों और बिम्बों का ऐसा सहज इस्तेमाल दुर्लभ है।
आइये पढ़ते
हैं खूंटियों पर टंगे लोग संग्रह से एक कविता ‘देशगान’
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
पेड़ हो या आदमी
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
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दिनमान पत्रिका में छपने वाला उनका स्तंभ ‘चरचे और चरखे’ खासा लोकप्रिय हु। 24 सितंबर, 1983 को निधन से पहले ‘काठ की घाटियाँ’, ‘बाँस का पुल’, ‘एक सूनी नाव’, ‘गर्म हवाएँ’, ‘कुआनो नदी’, ‘कविताएँ-1’, ‘कविताएँ-2’, ‘जंगल का दर्द’ और ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ जैसे काव्य संग्रहों और ‘उड़े हुए रंग’ नामक उपन्यास से साहित्य जगत में अपनी छाप छोड़ चुके थ। ‘सोया हुआ जल’ और ‘पागल कुत्तों का मसीहा’ नामक लघु उपन्यास, ‘अंधेरे पर अंधेरा’ संग्रह में उनकी कहानियां संकलित है।
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