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प्रथम श्रेणी के लेखन से संन्यास
Opinion

प्रथम श्रेणी के लेखन से संन्यास

मैंने तय कर लिया है कि इसी सीजन में प्रथम श्रेणी के लेखन से संन्यास ले लूँगा। यदि सम्पादक और प्रकाशक मित्र चाहें तो इस फैसले पर फिर से विचार करने के लिए मुझसे अनुरोध कर सकते हैं। ऐसा कोई अनुरोध प्राप्त न होने की स्थिति में मेरा यह फैसला अंतिम माना जाए।

कुछेक बातें प्रथम श्रेणी के लेखन के बारे में। 

प्रथम श्रेणी का लेखन प्रथम श्रेणी के खेल से जरा अलग किस्म का होता है। वहाँ खिलाड़ी का राष्ट्रीय टीम में घटिया प्रदर्शन भी प्रथम श्रेणी का खेल कहलाता है। कुछ खिलाड़ी तो खेलते ही नहीं, सिर्फ इतने हाथ-पाँव मार लेते हैं कि किसी तरह टीम में बने भर रहें। वहाँ बने रहने का मतलब चारों तरफ से बेशुमार दौलत और गजब की लोकप्रियता। हाँ, जब खिलाड़ी पूरे तन से और मन से सिर्फ धन के लिए बार-बार मैदान के बाहर ही देखता, लपकता और कूदता रहे और खेलना ही भूल जाए तो चयन समिति के सदस्य उसे हमेशा के लिए बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। टीम से निकाले जाने की पीड़ा को खिलाड़ी लोग संन्यास लेना जैसे गरिमामय शब्दों से अभिव्यक्त करते हैं।

इसके विपरीत प्रथम श्रेणी का लेखन वह होता है जो सिर्फ लिखा जाता है। पढ़ा नहीं जाता। कभी उसे संपादक नसीब नहीं होता तो कभी वह प्रकाशक को तलाशते-तलाशते रद्दी में बदल चुका होता है। इन दोनों में से कोई मिल भी जाये तो उसका बाकी जीवन पाठक की तलाश में गुजर जाता है। बदकिस्मती से किसी पाठक के दर्शन हो भी जाएँ तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि प्रथम श्रेणी का लेखन

अक्सर उसके सिर के ऊपर से गुजर जाता है।

इतना ही नहीं, प्रथम श्रेणी का लेखन प्रथम श्रेणी के लेखक से और भी कई त्यागों की माँग करता है। बीवी,  टीवी, फेसबुक और व्हाट्सअप  के मोह से खुद को किसी तरह बचाते हुए लिखने के लिए समय निकालना। लिखे हुए की टाइपिंग का खर्च। रचना भेजना। रचना छपे न छपे, इसकी कोई गारंटी नहीं। कब छपे, कैसे छपे, न छपे, इन सब सवालों का जवाब किसी किताब में नहीं। हाँ, अगर आप उस खास पत्रिका का चंदा देने और उसके लिए ग्राहक तथा विज्ञापन जुटाने के लिए विशेष प्रयास कर सकें, तो देर-सबेर छपने की गुंजाइश हो सकती है। 

मानदेय की तो बात ही मत कीजिए। पत्रिका बेशक लेसर प्रिंटिंग पर छपती हो,, बीसियों सरकारी और प्राइवेट विज्ञापन उसमें हों, प्रकाशक- सम्पादक उसके ठण्डी कारों में घूमते हों और पत्रिका की प्रसार संख्या हजारों में हो तो भी पत्रिका लघु ही कहलाती है। भला लघु पत्रिका मानदेय कैसे दे सकती है?

ऐसी पत्रिकाओं के लिए किया जाने वाला लेखन प्रथम श्रेणी का लेखन कहलाता है। मैं ऐसे लेखन से संन्यास ले रहा हूँ।

कुछेक पत्रिकाएँ ऐसी होती हैं जो सचमुच लघु होती हैं। आकार, प्रकार, प्रसार और औकात में भी। मूलतः सम्पादक के छपास रोग के निदान के लिए निकाली जाती हैं। अनियतकालिक और अनिश्चितकालिक। प्रायः आजीवन सदस्यता सहर्ष माँगती

और स्वीकार करती हैं, लेकिन चार अंक भी निकल आएँ तो गनीमत। प्राय: लेखकों के बीच ही वितरित होती हैं। सिर्फ वितरित, पढ़ी नहीं जाती। सौभाग्य से इस देश में जितने लेखक हैं, लगभग उतनी ही लघु पत्रिकाएँ छपती हैं। पाठक ठीक उनसे आधे हैं। लेखक तो वैसे भी पाठक नहीं होता। वह मौलिकता नष्ट हो जाने के डर से नहीं पढ़ता। तो ऐसी पत्रिकाओं से आये दिन मौलिक, अप्रकाशित, सर्वश्रेष्ठ, और ताजातरीन एवं प्रथम श्रेणी की रचनाओं की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए मैं प्रथम श्रेणी के लेखन से संन्यास ले रहा हूँ। 

कोई भी जमा-जमाया खिलाड़ी यूँ ही संन्यास नहीं लिया करता। वह तभी संन्यास लेता है जब उसे वापस बुलाए जाने की सारी उम्मीदें खत्म हो जाती हैं। आखिर कौन भरी जवानी में लाखों-करोड़ों की कमाई को लात मारेगा। खिलाड़ी को तो फिर भी संतोष रहता है कि जब तक खेल रहा था, दुनिया भर का चहेता था। उसे ढेर-सा पैसा और उससे भी ज्यादा प्यार मिला। कोठी मिली। कार मिली। फिर वह खेल से संन्यासित होते ही राजनीति में जा घुसता है, जहाँ अगले पाँच साल तक सिर्फ तालियाँ बजाने के एवज में उसे खूब पैसा मिलता है। लेकिन प्रथम श्रेणी के लेखक बेचारे को इन सबका सौवाँ हिस्सा भी नसीब नहीं होता। उस बेचारे को लेखक और संपादक भाई तो दूर, खुद के पड़ोसी तक नहीं पहचानते। पूरे मौहल्ले में पूछ देखिए, क्या प्रथम श्रेणी के फलाँ प्रसिद्ध लेखक इसी गली में रहते हैं, कोई भी नहीं बता पाएगा। हाँ, कल्लू पहलवान और लल्लू क्रिकेटर को सब पहचानते होंगे। न केवल पहचानते होंगे, बल्कि आपको उनके घर तक छोड़कर आएँगे और रास्ते में उनके सारे कारनामों का स्कोर कार्ड भी सुनाते चलेंगे। 

तो मैं इस प्रथम श्रेणी के लेखन में ही क्यों पिटता रहूँ जिसे न प्रकाशक अन्दर घुसने देता है और न उसकी किताब बाहर आने देता है। अगर कुछ लेखकों के पास न लिखने के कारणों की लम्बी सूची है तो प्रकाशक के पास उसे न छापने के कारणों की उससे भी लम्बी फेहरिस्त है। प्रकाशक किताब तभी छापेगा जब आप किताब  छापने के लिए पाण्डुलिपि के वजन के बराबर छपे हुए नोट भी उसे दें। रायल्टी वह नहीं देगा। आप बहुत जिद करेंगे तो वह रायल्टी के बदले आपकी छपी हुई किताबों की रद्दी अपने गोदामों से  तौलकर उठवा देगा। 

यही प्रथम श्रेणी का लेखन होता है। मैं इस लेखन से संन्यास लेने की घोषणा कर रहा हूँ।

जब कोई खिलाड़ी खेल से संन्यास लेता है या यूँ कहें कि लेने पर मजबूर कर दिया जाता है तो वह अपने संन्यास-पत्र में कई परन्तु और लेकिन भी जोड़ देता है कि वह संन्यास लेने के बावजूद फलाँ सीरीज़ या फलाँ ट्राफी या सीज़न के लिए उपलब्ध रहेगा। उसे उम्मीद रहती है कि शायद इसी बहाने उसे वापिस बुलवा लिया जाए। प्रथम श्रेणी के लेखन में लौटने का मेरा कोई इरादा नहीं है फिर भी कुछ लेखन ऐसा होता ही है जिसे आप ज़रूरत पड़ने पर इधर-उधर शिफ्ट कर सकते हैं। प्रथम श्रेणी के लेखन से संन्यास लेने के बाद मेरा इतर और सार्थक लेखन प्रभावित न हो, इसलिए मैं भी अपने संन्यास-पत्र में यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि मेरा लेखन उन सभी सम्पादकों को मिलता रहेगा जो मुझे नियमित रूप से, प्रमुखता से बिना प्रूफ की गलतियों के बल्कि मेरी गलतियों को भी सुधारते हुए और मेरी रचना में कोई भी काट-छाँट किए बिना छापते रहे हैं। पारिश्रमिक समय पर भिजवाते रहे हैं और विशेषांकों के लिए मुझे हमेशा याद करते रहे हैं। ऐसे सम्पादक मित्रों के लिए मैं अपना लेखन भला कैसे बंद कर सकता हूँ। उनके लिए मैं माँग पर और बिना माँगे भी रचनाएँ भिजवाता रहूँगा। मैं उन अखबारों और पत्रिकाओं के लिए भी पहले की तरह लिखता रहूँगा जो मेरी रचनाएँ नहीं लौटाती या लौटाती भी हैं तो टिकट लगे लिफाफे का इंतजाम खुद करती हैं। मानदेय भी वे देती ही हैं। उनके लिए मैं लिखता रहूँगा।

अलबत्ता कुछ सम्पादक ऐसे होते हैं जो विशेषांकों के लिए रचनाएँ सादर आमंत्रित करते हैं और उसके बाद मौन उपवास रख लेते हैं। रचना-प्राप्ति की खबर भी नहीं देते। छपने न छपने के बारे में आप बीसियों खत लिखिए, वे जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। उस पर तुर्रा यह कि अगले साल फिर रचना माँगने में नहीं शरमाते। ऐसे सम्पादक मित्र यह मानकर चलें कि मैं लेखन से ही संन्यास ले चुका हूँ। आइंदा मुझसे रचनाओं की उम्मीद न करें।

मैं उन प्रकाशकों को अपने संन्यास-पत्र के दायरे से बाहर रख रहा हूँ जो बिना पैसे लिए मेरी किताबें छापेंगे, रायल्टी देंगे, पूरी देंगे और समय पर देंने। वे अपने खर्चे पर किताबों का विमोचन करवाएँगे। समीक्षा के लिए सब जगह भेजेंगे और जहाँ भी पुरस्कार मिलने की उम्मीद होगी, मेरी जानकारी के बिना भेजेंगे। ऐसे प्रकाशकों के लिए मैं प्रथम श्रेणी का लेखन करते हुए भी उसे प्रथम श्रेणी में नहीं गिनूँगा। वे यही मानकर चलें, मैंने संन्यास नहीं लिया है। 

मैं यहाँ विशेष रूप से यह अनुरोध करना चाहूँगा कि जिस तरह संन्यास लेने वाला खिलाड़ी सिर्फ खेल से संन्यास लेता है, खेल की राजनीति से नहीं, और वह चयनकर्ता, मैनेजर, कोच, प्रशासक या प्रशिक्षक वगैरह के रूप में अपनी सेवाएँ देने के लिए हमेशा न केवल उपलब्ध रहता है बल्कि छटपटाता रहता है, उसी तरह मेरी प्रथम श्रेणी की सेवाएँ लेखन से जुड़े तमाम लेखनेतर धंधों, मसलन, पुस्तक चयन समिति, पुरस्कार समिति, समीक्षा, मुख्य अतिथि पद, अतिथि सम्पादकत्व, स्वयं पुरस्कृत होने आदि-आदि के लिए हमेशा-हमेशा और भरपूर रहेंगी। इन चीजों से भी कोई भला संन्यास लिया करता है!

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