मैं असीम आकाश को सौंपती हूँ मेरा निर्णय
नदी से कहती हूँ मुझे बताओ कैसे बहना है,
सड़क का पत्थर जो असँख्य ठोकरों के बाद भी सलामत है,
उसे ज़िन्दगी मुझसे बेहतर जीनी आती है
मिट्टी की ख़ुशबू भर से एक नन्ही बेल बोतल में क़ैद भी लहरा उठती है,
हवा को अपना भविष्य सौंप बैठे पेड़ झूमना नहीं भूले।
वह अनन्त सागर लौटता है बार-बार
अपने पास कुछ भी शेष नहीं रखने के बाद की प्रचुरता में उछाहें भरता हुआ,
आग की लौ हर बार कुछ नया रचती है
संहार में भी सृजन के कण दीप्त किए
अपने फ़ैसलों का भार मुझ पर ज़्यादा है
अब एक बार इन्हें तुम सबके हवाले कर
मैं मुक्त होना चाहती हूँ।
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