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Poem

किसी अप्रेम-रात में

प्रेम-घातों को किससे कहे लड़की
वह इश्क़ लिखे तो काग़ज़ पर फ़रेब उगे
रोना मुफ़ीद नहीं किसी के सामने
प्याज़ काटने का बहाना हो या
नल की धार बहती हो बंद दरवाज़े के पार

85 नंबर की बस में रात के दस बजे बैठकर कहेगी
कि कहीं का भी टिकट दे दो
तो शराबी कंडक्टर आँखें सेंकेगा
ड्राइवर पीले दाँत दिखाएगा
ख़ौफ़ है कितना!
लेकिन घर पर रहने में ख़ुद से ही ख़तरा है
बाएँ हाथ की नीली नस के साथ दाईं आँख भी फड़कती है

कनॉट प्लेस में भटकते शोहदे
बाज़ारू औरत समझकर दाम बताते हैं,
यहाँ-वहाँ हाथ मारकर भद्दे इशारे करते हैं
बिना प्रेम के सोना भी तो एक तय ग्राहक के साथ बैठना है

प्रेम-आघातों को किससे कहे लड़की
हाथ-हाथ में तराज़ू है
बटखरे बहुत भारी हैं
लड़की की दलील हल्की पड़ जाती है

वह प्रेम के लिए सब कुछ भूलती है
एक दिन सब कुछ के लिए यह अप्रेम भूल जाएगी
कहीं का नहीं सोचकर,
कहीं के लिए नहीं चली है लड़की
कहीं पहुँच जाएगी
अभी बच गई तो बच जाएगी

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