1. गधे की कीमत
एक था कुम्हार। उसके पास थे बहुत सारे गधे। वैसे तो कुम्हार का अपना पुश्तैनी धंधा था लेकिन बदलते बाज़ार के तेवर देखते देखते उसने कई तरह के धंधे अपना लिये थे। इस वजह से उसका कारोबार भी बढ़ रहा था और गधों की संख्या भी। कभी वह अपने गधों को ढुलाई के कामों में लगा देता, कभी दूसरे जरूरतमंद लोगों को अपने गधे भाड़े पर दे देता। कई बार तो काम धंधे से वापिस आते हुए वह अपने चुनिंदा और मजबूत गधों पर अशक्त और बीमार सवारियां भी बिठा लेता। इस तरह से उसका काम बहुत अच्छे से चल रहा था। वह अक्सर गधे खरीदता और बेचता भी रहता। उसके अच्छे दिन आ गये थे।
अब हुआ यह कि इस बार मेले में उसने जो गधे खरीदे, उनमें से एक गधा अव्वल दरजे का हरामी निकला। हट्टा कट्टा था, देखने में भी अच्छा था लेकिन काम करने में महा आलसी और बेईमान। वह गधा हर बार कोई ऐसी जुगत भिड़ाता कि अर्थ का अनर्थ हो जाता और कुम्हार का नुक्सान होता सो अलग। कभी सवारी को गिरा देता, कभी किसी भले आदमी पर दुलत्ती चला देता।
एक बार तो उसने ग़ज़ब ही कर दिया। कुम्हार को नमक की ढुलाई का बहुत बड़ा ठेका मिला। सब गधों पर नमक लाद दिया गया और चल पड़े मंजिल की तरफ। रास्ते में पड़ती थी एक छोटी सी नदी। बाकी गधे तो आराम से नदी पार कर गये लेकिन वह गधा जानबूझ कर नदी के बीच बैठ गया। नतीजा ये हुआ कि पानी में बहुत सा नमक घुल गया और गधे की पीठ पर रखा वज़न बहुत कम हो गया। कुम्हार समझ गया कि गधे ने चाल चल कर अपना बोझ कम कर लिया है। आखिर वह भी गधे का बाप था। उसने गधे को सबक सिखाने की सोची। अगली लदान में उसने बाकी गधों की पर तो नमक लदवाया लेकिन इस गधे पर थोड़ा कम नमक लाद कर ढेर सारी रुई लदवा दी।
गधा अपनी मस्ती में चला। जब नदी आयी तो पहले की तरह पानी में बैठ गया। लेकिन यह क्या। नमक तो घुल गया लेकिन भीगने से रुई का वज़न बहुत बढ़ गया। गधा भी समझ गया कि कुम्हार ने आखिर बदला ले लिया।
दिन बीतते रहे। न गधा अपनी हरकतों से बाज आया न कुम्हार ने उसे सज़ा देने में कोई कसर छोड़ी।
आखिर कुम्हार ने तय किया कि वह इस नामुराद गधे को अगले पशु मेले में बेच देगा। उसने गधे की कीमत पाँच हजार रुपये तय की। अब किस्मत की मार, सारा काम धंधा छोड़ कर वह कई कई बार उस गधे को बेचने के लिए अलग अलग पशु मेलों में जाता रहा लेकिन गधे का कोई ग्राहक नहीं मिलना था,नहीं मिला।
एक बार सब लोग बहुत हैरान हुए जब उन्होंने देखा कि उस गधे के गले में पाँच हजार के प्राइस टैग के बजाये पच्चीस हजार रुपये का टैग लगा हुआ था।
सबने पूछा – रे कुम्हार, बावरा हुआ है क्या। जो गधा इतने दिन से पाँच हजार में नहीं बिक रहा था उसे आज तू पच्चीस हजार में बेचने चला है। ऐसा क्या नया जुड़ गया है गधे में कि तू पाँच गुना कीमत पर बेच रहा है।
कुम्हार ने ठंडी सांस भरते हुए कहा- इस गधे ने तो मेरी जान सांसत में डाल रखी है। इसकी वजह से मेरा सारा धंधा चौपट हुआ जा रहा है। अब कल की ही बात लो। मैं आँगन में सोया हुआ था। वसूली करके लाया था। बीस हजार रुपये के कड़क नोट मेरे सिरहाने अंगोछे में बंधे रखे थे। मेरी आँख लग गयी और ये नामुराद अंगोछे समेत सारे नोट खा गया। अब मैं वो बीस हजार भी तो इसी को बेच कर वसूल करूंगा।
डिस्क्लेमर: इस बार डिस्क्लेमर थोड़़ा अलग है। एक देश है। वहां बहुत सारे बैंक हैं। इन बैंकों के जरिये (या मिलीभगत से) समूची अर्थव्यवस्था को चट कर जाने वाले कुछ शातिर लोग हैं। बैंक उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते या बिगाड़ना नहीं चाहते। फिर उन बैंकों में अपनी मेहनत की कमाई रखने वाले मामूली लोग हैं। उन्हें बैंकों के जरिये ही दिन में बीस बार लेन देन करना पड़ता है। मजबूरी है क्योंकि वह देश कैशरहित लेनदेन में विश्वास रखता है। उस देश में बैंक इसी बात का पूरा फायदा उठा रहे हैं। नोट चबा जाने वालों पर तो उनका बस चलता नहीं, गरीब आदमी की पीठ पर रुई लाद कर उसकी जान निकाले दे रहे हैं। एक गधे पर बस नहीं चला तो दूसरी गधी के कान उमेठ दिये।
6. मदद भरा हाथ
ये कथा आप सब जानते ही हैं कि किस तरह स्कूल में पढ़ने वाले एक लड़के को पंद्रह अगस्त को होने वाली परेड की अगुवाई करनी थी और उसे स्कूल की तरफ से एक ही शाम पहले यूनिफार्म की शर्ट और पैंट दी गयी थी। जब उसने घर आ कर पैंट पहन कर देखी तो पता चला कि पैंट कम से कम तीन इंच लंबी है और इसे पहन कर किसी भी तरह से टीम की अगुवाई नहीं की जा सकती।
वह अपनी मां के पास गया और उससे पैंट तीन इंच छोटी कर देने के लिए कहा ताकि वह पैंट धो कर प्रेस करके अगले दिन के लिए तैयार रख सके। मां ने अपने चारों तरफ फैले कामों का रोना रोया और बच्चे से कहा कि वह अपनी बड़ी बहन से ठीक करा ले।
बड़ी बहन ने बताया कि कल ही उसे अपने स्कूल के समारोह में समूह गीत गाना है और वह सहेलियों के घर प्रैक्टिस के लिए जा रही है।
हार कर वह दादी के पास गया कि वह ही उसकी मदद कर दे। दादी ने बताया कि उसकी आंखें इतनी कमजोर हैं कि वह तो सुई में धागा ही नहीं डाल सकती। पैंट कहीं गलत कट गयी तो सब अनर्थ हो जायेगा।
किस्सा ये कि जब सबके आगे गिड़गिड़ाने पर भी किसी ने भी उसकी मदद नहीं की तो वह मास्टर जी के पास गया कि उसे सही साइज की पैंट दी जाये नहीं तो वह परेड में हिस्सा नहीं ले पायेगा। मास्टर जी भले आदमी निकले और उसे सही आकार की पैंट दे दी।
देर रात मां को ख्याल आया कि बेटा दिन भर पैंट ठीक कराने के लिए रोता फिर रहा था, बेचारे को स्कूल में शर्मिंदा न होना पड़े। वह उठी और बेटे की पैंट तीन इंच छोटी करके सो गयी।
यही नेक ख्याल बाद में बहन को और दादी को भी आया और उन्होंने भी अपने अपने हिसाब से वही पैंट छोटी कर दी।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि सबकी मेहरबानी से ठीक ठाक पैंट भी सुबह तक निक्कर में बदल चुकी थी।
हो सकता है आपके पास जो कहानी हो वह किसी और तरीके से कही गयी हो लेकिन हुआ उसमें भी वही होगा जो इस कहानी में हुआ है।
वक्त के साथ कथा बदल गयी है। अब पतलून छोटी नहीं की जाती बल्कि पहनी हुई पतलून ही उतारने के लिए शातिर लोग छटपटा रहे हैं।
डिस्क्लेमर: इस कहानी का उस देश से कुछ भी लेना देना नहीं है जहां विकास के नाम पर आम आदमी की पहनी हुई और तार तार हो रही पैंट उतारने के लिए कभी रेलवे विभाग में तो कभी बैंकों में तो कभी दूसरे कमाऊ विभागों में होड़ सी लगी हुई है। सब उसे हर हालत में नंगा करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। सब यही कर रहे हैं।
आम आदमी समझ नहीं पा रहा कि वह अपने अंग ढके या कुछ काम धाम भी करे।
7. तेरी बारी
एक गांव में दो लड़के रहते थे। दोनों कोई काम धाम नहीं करते थे और न ही पढ़ते ही थे।। दिन भर ऊधम मचाते।एक दिन दोनों के पिताओं ने एक फैसला लिया कि इन्हें धंधे पर लगाया जाये। पहले लड़के के पिता ने उसे केले ले कर दिये और दूसरे बच्चे के पिता ने उसे अमरूद खरीद कर दिए कि जाओ और बेचो तथा अपनी जिंदगी शुरू करो।
दोनों बाजार में अपना अपना सामान लेकर बैठ गए। अब हुआ यह कि केले वाले का पहला केला बिक गया। उसकी बोहनी हो गयी। अमरूद वाले की जब बहुत देर तक बोहनी नहीं हुई तो केले वाले ने दोस्ती निभाते हुए अमरूद वाले से कहा – चल मैं तेरी बोहनी करा देता हूं। ये ले पैसे ले और एक अमरूद मुझे दे दे। इस तरह दोनों की बोहनी हो गयी।
अब हुआ यह कि दिन भर दोनों के पास कोई ग्राहक नहीं आया लेकिन दोनों बारी-बारी से, केले वाला अमरूद वाले से और अमरूद द्वारा केले वाले से फल खरीद कर खाते रहे और एक दूसरे की बिक्री कराते रहे।
शाम हो गयी। सारे अमरूद खत्म हो गए और सारे केले भी खत्म हो गए लेकिन कमाई के नाम पर दोनों के पास सिर्फ एक ही सिक्का था। वे खुश खुश घर चले आये कि सारा माल बिक गया।
आगे चल कर उनमें से एक राजनीति में चला गया और दूसरा नामी उद्योगपति बना।
दोनों ने एक दूसरे का ख्याल रखना जारी रखा।
वे आज भी वही कर रहे हैं। माल जनता का और वे दोनों दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर करते रहते हैं।
आज भी वे इस बात की परवाह नहीं करते कि शाम के समय सिक्का किसके पास है। बस वे इसी बात को ले कर खुश रहते हैं कि जनता से औने पौने दाम से खरीदा या हड़पा पूरा माल खप गया।
अब उनके साथ ब्यूरोक्रेसी भी जुड़ गयी है जो दोनों के फायदे के लिए योजनाएं बनाने के एवज में दो पैसे अपने लिए भी रख लेते हैं।
डिस्क्लेमर – ये विशुद्ध बोध कथा है और इसके सारे पात्र काल्पनिक हैं। इसका किसी देश की राजनीति से या अर्थव्यवस्था के स्तम्भों से कुछ लेना देना नहीं है।
8. सौदागर
एक देश था। उसमें बहुत सारे शहर थे और बहुत सारे गांव थे। गांव वाले अक्सर अपनी खरीदारी के लिए आसपास के बड़े शहरों में जाया करते थे।
ऐसे ही एक शहर के एक बाजार में बहुत सारी दुकानें थीं। वहां एक ऐसी दुकान भी थी जहां पर ऐसी सारी चीज़ें मिलती थीं जिन पर एमआरपी नहीं लिखा होता था, जैसे साइकिलें, जूते, टोपियां, लालटेन और कपड़े आदि। ये दुकान दो भागीदार मिल कर चलाते थे। अक्सर भागीदार बदलते भी रहते लेकिन धंधा और धंधा करने का तरीका वही रहता। मकसद एक ही रहता, ग्राहक को बेवकूफ बना कर लूटना।
दुकानदारी करने का उनका तरीका बहुत मजेदार था। वे बारी बारी से दुकान पर बैठते। जब भागीदार नंबर एक दुकानदारी करने बैठता तो भागीदार नंबर दो सामने वाली चाय की दुकान पर जाकर बैठ जाता। जब कोई ग्राहक कुछ खरीदने आता और पहला भागीदार उसे लगभग निपटा चुका होता तो दूसरा भागीदार टहलता हुआ आता, ग्राहक से दुआ सलाम करता और पहले वाले भागीदार से पूछता – साहब जी को क्या बेचा?
वह बताता – जी, ये माल बेचा है। तब भागीदार पूछता – कितने में दिया तो पहला बतलाता कि इतने रुपए में सौदा हुआ है।
तब दूसरा वाला सिर पीटने का नाटक करता, कहता – लुटा दे, लुटा दे दुकान। इतने में तो हमने भी नहीं खरीदा है। तेरा यही हाल रहा तो हमें एक दिन दुकान बंद करके भीख मांगनी पड़ेगी।
तब पहला वाला कहता – मुझे नहीं याद रहा कि हमने कितने में खरीदा है लेकिन अब हम सौदा कर चुके हैं तो हम ग्राहक को इसी कीमत दे देंगे आप चाहें तो हमारे हिस्से के लाभ में से ये नुक्सान काट लेना।
दोनों झगड़ा करने का नाटक करते।
पहला वाला भागीदार ग्राहक को समझाता – आप तो ले जाओ जी सामान तय कीमत पर। मैं इनसे निपट लूंगा। अपने हिस्से का मुनाफा छोड़ दूंगा।
ग्राहक खुश खुश सामान लेकर चला जाता कि उसे बहुत सस्ते में सामान मिल गया है।
हर ग्राहक के साथ यही तरीका अपनाया जाता।
अगली बार दुकान पर भागीदार नंबर दो बैठता और पहला वाला सामने वाली चाय की दुकान पर जा बैठता और ग्राहक के आने पर यही नाटक करता।
कहानी का अगला मोड़़ ये है कि जब चीज़ बिक रही होती थी तो दोनों पार्टनर ग्राहक से विनती करते थे कि किसी को बताना मत कि कितने की ली है, इस भाव पर हम और नहीं दे पायेंगे।
वे हमेशा यही नाटक करके इस तरीके से ग्राहकों को उल्लू बनाते रहते और हर बार ग्राहक समझता कि वह भागीदारों के आपसी झगड़े में सामान सस्ते में ले आया है।
वे बेच कुछ भी रहे होते, टोपी हर बार ग्राहक को ही पहनाई जाती।
डिस्क्लेमर: यह एक विशुद्ध बोध कथा है जिसके सारे पात्र काल्पनिक है। इस बोध कथा का उस देश से कोई लेना देना नहीं है जहां पर राजनीतिक पार्टियां आपस में भागीदारी करके वोटरों को लगातार कई वर्षों से टोपियां पहना रही हैं और वोटर हर बार भ्रम में जीता है कि शायद इस बार कुछ तो उसके हाथ लगा है।
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