Gautam Rajrishi

10 मार्च, 1975 को बिहार के सहरसा में जन्मे गौतम राजऋषि भारतीय सेना में कर्नल हैं। ‘पराक्रम पदक’ और ‘सेना मेडल’ से सम्मानित राजऋषि जब भी अपनी ड्यूटी से फुर्सत में होते हैं, कलम उठा लेते हैं। या यूँ कहें कि जब वे कोई मिसरा नहीं बुन रहे होते हैं तो उस वक्त अपने कंधे पर लगे सितारे और सीने पर टँके पदकों की दमक थोड़ी और बेहतर कर रहे होते हैं। उनके लिखे शेर न केवल मंचों से श्रोताओं के दिलों तक पहुँचते हैं बल्कि पुस्तकों के माध्यम से पाठकों की भावनाओं को भी स्पर्श करते हैं। गौतम ग़ज़ल के साथ- साथ कहानियां, डायरी आदि विदेहों में भी लिखते हैं। उनकी कहानियाँ हंस, वागर्थ, पाखी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।

उनकी अधिकांश पोस्टिंग कश्मीर के आतंकवाद-ग्रसित इलाक़े और बर्फ़ीली ऊंचाई पर स्थित नियंत्रण-रेखा की निगरानी में गुज़री है। ऐसी नियुक्तियों के दौरान बंदूक और क़लम दोनों को संजीदगी से पकड़ना और उन के बीच जुगलबंदी स्थापित करते हुए अपनी पहचान बना लेना अपने आपमें उल्लेखनीय है। ‘पाल ले इक रोग नादां’ उनकी ग़ज़लों का पहला संकलन था। इसके बाद आया कहानी संग्रह ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ भी काफी चर्चित रहा। उनकी हालिया पुस्तक एक ग़ज़ल संग्रह है, जो ‘नीला-नीला’ नाम से प्रकाशित हुई।

'पाल ले इक रोग नादाँ'

'पाल ले इक रोग नादाँ' उनकी ग़ज़लों का पहला संकलन था।  ये ख़ास उनकी सिग्नेचर स्टाइल की ग़ज़लें है जिसमें कहीं चाँद सिगरेट पीता है तो कहीं धूप शावर में नहाती है। कहीं ठंडी होती कॉफ़ी के इंतज़ार में कोई कैडबरी चॉकलेट अपने रैपर के अंदर पिघलती है तो कहीं कोई येल्लो पोल्का डॉट्स वाली कमसिन पूरे मौसम को चितकबरा करती है। ग़ज़लों की ये इमेजरी मॉडर्न है और एक अलहदा कल्चर बुनती है अपने रीडर्स के इर्द-गिर्द। गौतम की मिसाल शौर्य से शायरी तक उठती है और एक नया आसमान बनाती है। कश्मीर की बर्फ़ीली सरहदों पर बुनी गई इन ग़ज़लों में कर्नल गौतम का निशाना अचूक है कि हर मिसरा दिल के सबसे नाज़ुक कोने में जाकर लगता है। कुछ यूँ कि किसी कोने से टीस उठे तो किसी से खिलखिलाहट।

 

'हरी मुस्कुराहटों का कोलाज'

इसके बाद फौजी जीवन के अनुभवों से निकलकर आया भारतीय जवानों को समर्पित कहानी संग्रह 'हरी मुस्कुराहटों का कोलाज' इन कहानियों में फ़ौजी जीवन की वो झलक मिलती है जो आम नागरिक से बहुत ही अलग है और जिसे पढ़ते पाठक फ़ौजी माहौल में पहुँच जाता है। उनकी अभी तक अधिकांश पोस्टिंग कश्मीर के आतंकवाद ग्रस्त इलाकों और बर्फ़ीली ऊँचाइयों पर ‘लाइन ऑफ़  कंट्रोल’ पर हुई है। उन्होंने दुश्मनों के साथ कई मुठभेड़ों का डटकर सामना किया और एक बार तो गम्भीर रूप से घायल भी हुए। चुनौतीपूर्ण फ़ौजी जीवन को उन्होंने करीब से जिया और देखा है। इस बीच कई ऐसी घटनाएँ हुईं और ऐसे पात्र मिले जो यादगार बन गये। इन्हीं अनुभवों और स्मृतियों को लेकर उन्होंने कहानियाँ लिखीं जो इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। 

 

 ‘नीला-नीला’ 

उनकी हालिया ग़ज़ल संग्रह  ‘नीला-नीला’ लगातार बेस्ट सेलर लिस्ट में जगह बनाये हुए है।  जिसके नीले-नीले शेर कहानियाँ सुनाते हैं, बूढ़े चिनार के पेड़ों की, चाँदी सी चमकती बर्फ़ीली वादियों की, महबूब की याद में दोहरे हो चुके दिसम्बर की और हर उस शय की जहाँ इश्क़ थोड़ा सा ठहरकर ग़ज़ल में घुल जाता है। नीला-नीला में गौतम ने मुहब्बत के अनेकों रंग उड़ेले हैं – कभी शाम का अकेलापन तो कभी दूरियों का एहसास, कभी चुम्बन की गर्माहट तो कभी तन्हा रातों की करवटें … नीला-नीला है ही मुहब्बत करने वालों के नाम! हाँ, और भी कुछ भावनाएं और विषय आपको अवश्य दिख जायेंगे यदा-कदा पन्नों पर, लेकिन इश्क़ ही है जो इस संग्रह को नीला बनाये रखता है!

 

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