Synopsisहमारे समाज और संस्कृति से जुड़े हुए अभी भी ऐसे बहुत-से मुद्दे हैं जिन्हें स्त्री-विमर्श के दायरे में शामिल नहीं किया गया है या जिनपर चर्चा नहीं की गयी है. हमारे समय की अत्यन्त सजग और सुपरिचित लेखिका अनामिका की पुस्तक ‘स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष’ ऐसे ही कई पहलुओं को बहस का मुद्दा बनाती है जिनसे सामान्यतः हम कतरा कर निकल जाते हैं.
आज स्त्री की अभिव्यक्ति और स्वतन्त्रता की राह में जितनी समस्याएँ हैं उसी अनुपात में स्त्रियों की दुनिया भी बहुत तेजी से बड़ी हो रही है. इस पुस्तक में संकलित निबन्ध को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि आज स्त्रियों के घर और आँगन का ही स्पेस नहीं बढ़ा है, बल्कि उसकी भाषा और विचार का, उसके सोच और दर्शन का व्योम खुलता गया है. उसके लोक और शास्त्र का दायरा भी तेज गति से बढ़ता गया है.
Enjoying reading this book?
Binding: HardBack
About the author
अनामिका का जन्म 17 अगस्त, 1961, मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ । इन्होंने एम.ए., पीएच.डी.( अंग्रेजी), दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की । उन्हें हिंदी कविता में अपने विशिष्ट योगदान के कारण राजभाषा परिषद् पुरस्कार, साहित्य सम्मान, भारतभूषण अग्रवाल एवं केदार सम्मान पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। समकालीन हिन्दी कविता की चंद सर्वाधिक चर्चित कवयित्रियों में वे शामिल की जाती हैं। अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका होने के बावजूद अनामिका ने हिन्दी कविता कोश को समृद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। प्रख्यात आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय के अनुसार "भारतीय समाज एवं जनजीवन में जो घटित हो रहा है और घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।" वहीं दिविक रमेश के कथनानुसार "अनामिका की बिंबधर्मिता पर पकड़ तो अच्छी है ही, दृश्य बंधों को सजीव करने की उनकी भाषा भी बेहद सशक्त है।"