Synopsisमहाभारत के आदिपर्व में उपलब्ध एक छोटे-से आख्यान पर आधारित महाकवि कालिदास का नाटक 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' संस्कृत रंगमंच की शास्त्रीय नाट्य-परंपरा का अप्रतिम उदाहरण है, जिसका हिंदी रूपांतर सुप्रसिद्ध कहानीकार और नाटककार स्व. मोहन राकेश ने 'शाकुंतल' के नाम से वर्षो पहले किया था ।
संस्कृत की संपूर्ण नाट्य-परंपरा में 'शाकुंतल' अपने कथ्य एवं संरचना की दृष्टि से एक बेजोड़ नाटक इस अर्थ में भी है कि उसे पढ़कर प्राय: यह भ्रम हो जाता है कि भरत ने अपने 'नाट्यशास्त्र' के लिए इस नाटक को आधार बनाया अथवा कालिदास ने 'नाट्यशास्त्र' से प्रेरणा ग्रहण करके इस नाटक की रचना की । वास्तव में यहाँ शास्त्र और रचनात्मक लेखन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है । प्रेम जैसे शाश्वत कथ्य पर आश्रित होकर भी 'शाकुंतल' में प्रेम की जिस परिणति एवं पराकाष्ठा का चित्रण किया गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । मानवीय संबंधों के बेहद मार्मिक, सूक्ष्म और गहरे प्रसंगों के लिए 'शाकुंतल' सदैव अपना सर्वोपरि स्थान बनाए रखेगा । डेढ़-दो हजार वर्षों के लंबे अंतराल की अग्निपरीक्षा से गुजरकर भी ' शाकुंतल' उतना ही नया और ताजा लगता है ।
हमें विश्वास है कि अपने रूपांतर में पाठकों, अध्येताओं और रंगकर्मियों के बीच ' शाकुंतल' का पुन: वैसा ही स्वागत होगा, जैसा कि पहले संस्करण के समय हुआ था ।
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Binding: HardBack
About the author
Mohan Rakesh (1925?1972) was a modernist innovator in Hindi who deeply influenced India?s multilingual literary culture after Independence. His full-length plays?Ashadh ka ek din (1958), Lahron ke rajhans (1963) and Adhe adhure (1969)?became seminal works of urban drama and theatre, while his fiction sustained the ?new story? and ?new novel? movements nationally. Consolidated by four decades of posthumous publication, his prolific output as theatre theorist, literary and cultural critic, translator, travel writer, diarist and correspondent now positions him as a transformative figure in postcolonial literature worldwide.