Synopsisइस पुस्तक में संगृहीत 13 निबंधों का रचनाकाल 1922 से 1934 तक के 12 वर्षों में फैला हुआ है । अपेक्षाकृत प्रारंभिक लेखन में शुमार निरालाजी के इन निबंधों का प्रकाशन समन्वय, मतवाला. सुधा और माधुरी जैसी विख्यात पत्रिकाओं मैं हु आ था । इन निबंधों मै से अधिकतर इस वान का साक्ष्य हैं कि निरालाजी का प्रारंभिक साहित्यिक उन्मंप वदान र्का गोद सं हुआ हैं । इसके साथ र्हा यह कृति तरुण निगला की भावनाओं, उनके चिंतनशील व्यक्तित्व, साहित्यिक संघर्ष और एक गद्यकार के रूप मैं उनकी रचनात्मक क्षमताओं सं गहरा परिचय कराती है ।
Enjoying reading this book?
Binding: HardBack
About the author
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (21 फरवरी, 1896 - 15 अक्टूबर, 1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
किसी ने उस युग-कवि को ‘महाप्राण निराला’ कहा तो किसी ने उसे ‘मतवाला’ कहा। किसी ने उसे छायावादी युग का ‘कबीर ’कहा तो किसी ने उन्हें ‘मस्तमौला’ कहा । किसी ने उन्हें सांस्कृतिक नवजागरण का ‘बैतालिक’ कहा तो किसी ने उन्हें सामाजिक-क्रान्ति का ‘विद्रोही कवि’ कहा । एक साथ उनके नाम के साथ इतना वैविध्य और वैचित्रय जुटता गया कि इनका जीवन और काव्य दोनों विरोधाभास के रूपक बनते गए। मगर ‘निराला’ सचमुच निराला ही बने रहे। लोगों के द्वारा दिये गये विशेषणों की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। वे एक साथ दार्शनिक भी थे, समाज-सुधारक भी थे, विद्रोही भी थे, स्वाभिमानी भी थे, अक्खड़ भी थे, फक्कड़ भी थे, उदारचेता भी थे और सबसे बढ़कर ‘महामानव’ थे।
युग की पीड़ा और समय का दंश निराला के हृदय को भी सालता रहा और उनके भीतर से शब्द का लावा फूटता रहा। उनके शब्द कहीं अंगार बनकर निकले तो कहीं इन्द्रधनुष बनकर उतरे। इस महान् कवि की जीवन-यात्रा भी फूल और अंगारे के बीच से होकर चलती रही। एक सतत संघर्ष की कहानी उनके जीवन की निशानी बनकर रह गई।