Synopsisयह पुस्तक एक सामूहिक इतिहास है जो लोकतंत्र को और सार्थक बनाने के उद्देश्य से आम लोगों के जुडऩे और प्रतिकूलतम परिस्थितियों में एकजुट रहने की कहानी बयान करती है।
‘‘ब्यावर की गलियों से उठकर राज्य की विधानसभा से होते हुए संसद के सदनों और उसके पार विकसित होते एक जनान्दोलन को मैंने बड़े उत्साह के साथ देखा है। यह पुस्तक, अपनी कहानी की तर्ज पर ही जनता के द्वारा और जनता के लिए है। मैं खुद को इस ताकतवर आन्दोलन के एक सदस्य के रूप में देखता हूँ।’’
कुलदीप नैयर, मूर्धन्य पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता
‘‘यह कहानी हाथी के खिलाफ चींटियों की जंग की है। एम.के.एस.एस. ने चींटियों को संगठित कर के राज्य को जानने का अधिकार बनाने के लिए बाध्य कर डाला। गोपनीयता के नाम पर हाशिये के लोगों को हमेशा अपारदर्शी व सत्ता-केन्द्रित राज्य का शिकार बनाया गया लेकिन वह जमीन की ताकत ही थी जिसने संसद को यह कानून गठित करने को प्रेरित किया जैसा कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में निहित है, यह राज्य ‘वी द पीपल’ (जनता) के प्रति जवाबदेह है। पारदर्शिता, समता और प्रतिष्ठा की लड़ाई आज भी जारी है...।’’
बेजवाड़ा विल्सन, सफाई कर्मचारी आन्दोलन, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित
‘‘यह एक ऐसे कानून के जन्म और विकास का ब्योरा है जिसने इस राष्ट्र की विविधताओं और विरोधाभासों को साथ लेते हुए भारत की जनता के मानस पर ऐसी छाप छोड़ी है जैसा भारत का संविधान बनने से लेकर अब तक कोई कानून नहीं कर सका। इसे मुमकिन बनानेवाली माँगों और विचारों के केन्द्र में जो भी लोग रहे, उन्होंने इस परिघटना को याद करते हुए यहाँ दर्ज किया है... यह भारत के संविधान के विकास के अध्येताओं के लिए ही जरूरी पाठ नहीं है बल्कि उन सभी महत्त्वाकांक्षी लोगों के लिए अहम है जो इस संकटग्रस्त दुनिया के नागरिकों के लिए लोकतंत्र के सपने को वास्तव में साकार करना चाहते हैं।’’
वजाहत हबीबुल्ला, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त, सीआईसी
‘‘देश-भर के मजदूरों और किसानों के लिए न्याय व समता के प्रसार में बीते वर्षों के दौरान एम.के.एस.एस. का काम बहुमूल्य रहा है। इस किताब को पढऩा शानदार अनुभव से गुजरना है। यह आरम्भिक दिनों से लेकर अब तक कानून के विकास की एक कहानी है। इस कथा में सक्रिय प्रतिभागी जो तात्कालिक अनुभव लेकर पेश होते हैं, वह आख्यान को बेहद प्रासंगिक और आग्रहपूर्ण बनाता है।’’
श्याम बेनेगल, प्रतिष्ठित फिल्मकार और सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध नागरिक
‘‘हाल के वर्षों में आरटीआई सर्वाधिक अहम कानूनों में एक रहा है। इसे यदि कायदे से लागू किया जाए, तो इसका इस्तेमाल शहरी और ग्रामीण गरीबों को उनकी जिंदगी की बुनियादी जरूरतें दिलवाने और कुछ हद तक सामाजिक न्याय सुनिश्चित करवाने में किया जा सकता है।’’
रोमिला थापर, प्रसिद्ध इतिहासकार और प्रोफेसर एमेरिटस, जेएनयू
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Binding: Paperback
About the author
अरुणा रॉय ने 1975 में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तीफा दिया और राजस्थान के गाँवों में किसानों और मजदूरों के बीच काम शुरू किया। उन्होंने 1990 में मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) की स्थापना में सहयोग दिया। मजदूरी के सवाल और अन्य अधिकारों को लेकर नब्बे के दशक के मध्य में एमकेएसएस के चलाए संघर्ष ने सूचना के अधिकार के आन्दोलन को जन्म दिया। अरुणा आज भी कई जनतांत्रिक संघर्षों और अभियानों का हिस्सा हैं।