Synopsisराजकमल चौधरी का रचना-संसार स्वातंत्रयोत्तर भारत के प्रारंभिक दो दशकों के बौद्धिक पाखंड, आर्थिक बदहाली, राजनितिक दुर्व्यवस्था, सामाजिक धूर्तता, मानव-मूल्य और नीति-मूल्य के ह्रास, रोटी-सेक्स-सुरक्षा के इंतजामों में सारी नैतिकताओं से विमुख बुद्धिजीवियों के आचरण, खंडित अस्तित्व और भग्नमुख आजादी की चादर ओढ़े समाज की तमाम बदसूरती, और उन बद्सुर्तियों के कारणों का दस्तावेज है ! इस दस्तावेज में वह चाहे कविता, कहानी, उपन्यास हो, या निबंध, आलोचना, डायरी उनमे समाज की विकृति का वास्तविक चित्र अंकित हुआ, भयावह यथार्थ का क्रूरतम चेहरा सामने आया, जो आज तक बना हुआ है !
राजकमल चौधरी के रचना-संसार में भाषा, संस्कृति, समाज से निरपेक्ष गिनती के लोग अपना ऐश्वर्य बनाने में जीवन-संग्राम के सिपाहियों के हिस्से की ध्वनि, धूप, पवन, प्रकाश पर काबिज होते जा रहे हैं ! गगनचुम्बी अहंकार और तानाशाही वृत्ति से आम नागरिक की शील-सभ्यता के हरे-भरे खेत को कुचल रहे हैं ! भाव और भाषा की तमीज से बेफिक्र लोग अर्थ-तंत्र और देह-तंत्र की कुटिल वृति में व्यस्त हैं ! सत्ताधारियों की राजनितिक करतूतों को देखते हुए कहा जा सकता है कि मात्र पन्द्र वर्ष के अपने गभीर रचनाकाल में राजकमल चौधरी ने साढ़े तीन हजार पृष्ठों की अपनी श्रेष्ठ रचनाओं में शायद भावी भारत की पूर्वघोषणा ही कर दी थी !
अकविता के प्रमुख कवि राजकमल चौधरी के लिए कविता अपने विकट समय में जीवन और उसकी जमीन के लिए अभिव्यक्ति का हथियार थी ! रचनावली के इस पहले खंड में उन संकलनों की कविताएँ शामिल हैं जो कवि के जीवन-काल में प्रकाशित न हो सकीं ! ‘बेदाग दरपन’, ‘एक व्यक्ति प्राणहीन’, ‘अमृता के लिए कविताएँ’, ‘नंगी प्रार्थनाएं’, ‘विचित्रा’ जैसे पांडुलिपियाँ उसी कोटि की हैं ! मैथिली कविताओं के साथ-साथ राजकमल की वे फूलकर कविताएँ भी शामिल की गई हैं जो उनकी हस्तलिपि में प्राप्त हुईं ! प्रकाशित रचनाओं को प्रकाशन-तिथि के अनुसार रखा गया है, पर प्रधानता रचना-तिथि की ही है ! जिन रचनाओं की रचना-तिथि या प्रकाशन-तिथि उपलब्ध नहीं हुई, वे एक जगह अलग से रखी गई हैं !
निस्संदेह, पाठक राजकमल चौधरी की इन कविताओं से गुजरते हुए मनुष्य और उसकी पृथ्वी से जुड़े उन तमाम प्रश्नों से टकराएँगे जो आज भी हल नहीं किए जा सके हैं !
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About the author
राजकमल चौधरी (13दिसंबर 1929 -19 जून 1967 हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे।मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं। हिन्दी में उनकी संपूर्ण कविताएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं।
वाणिज्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद, राजकमल ने स्वयं को रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर दिया। उनकी रचनात्मकता कवि, उपन्यासकार, कहानी लेखक, नाटककार आदि कई रूपों में सामने आई। उनकी रचनात्मकता मुख्यतः तीन भाषाओं मैथिली, हिंदी एवं बंगाली तक सीमित रही। हालाँकि उन्होंने अंग्रेजी में भी कुछ कवितायें लिखी।
मैथिली में उन्होंने करीब 100 कवितायें, 3 उपन्यास, 37 कहानियाँ, 3 एकांकी और 4 आलोचनात्मक निबंध लिखे। उनके वृहत साहित्यिक लेखन का अधिकांश हिस्सा उनके जीवनकाल में अप्रकाशित रहा। उनकी मृत्यु के लगभग दस महीने के बाद बी॰आई॰टी॰ सिन्दरी स्थित मित्रों ने उनकी मैथिली कहानियों का प्रथम संग्रह ललका पाग का प्रकाशन किया। उसके पश्चात निर्मोही बालम हमर और एक अनार एक रोगाह का प्रकाशन हुआ। 1980 में मैथिली अकादेमी ने कृति राजकमलक का प्रकाशन किया। तदुपरांत 1983 में तारानंद वियोगी के संपादन में एकटा चम्पाकली, एकटा विषधर का प्रकाशन हुआ। उनकी कहानी एकटा चम्पाकली एकटा विषधर में मिथिला में व्याप्त बेमेल पुनर्विवाह पर गहरा चोट है जिसमें यह बताया गया कि आर्थिक दंश पीड़ित मैथिल समाज (कहानी में लड़की की माँ) किस तरह बेझिझक एक फूल सी प्यारी लड़की को उसके पिता के हमउम्र विधुर पुरुष के सामने शादी के लिए हाजिर करती है
यद्यपि राजकमल ने हिंदी की तुलना में मैथिली में ज्यादा समय तक लिखा, लेकिन उनका हिंदी साहित्य में योगदान काफी समृद्ध रहा। हिंदी में उन्होंने आठ उपन्यास, करीब 250 कवितायें, 92 कहानियाँ, 55 निबंध और 3 नाटक लिखे। उनका हिंदी में कविता लेखन 1950 के आस पास शुरू हो चुका था। 1956 के बाद हिंदी लेखन में प्रवाह काफी बढ़ गया। उनकी पहली प्रकाशित कविता का शीर्षक था - बरसात: रात: प्रभात। हिंदी में उनकी लेखनी, मैथिली से कई मायनों में भिन्न थी। यह भिन्नता रचना में केन्द्रित समस्या, संबोधित वर्ग एवं रचना की बुनियादी संरचना में थी। हिंदी एवं मैथिली की रचनाओं में स्त्री पात्रों के माध्यम से सामजिक-आर्थिक समस्याओं पर ठोस प्रहार करते थे। उनके रचनात्मक लेखन का काफी भाग कलकत्ता में गुज़रा। इसीलिए उनके लेखन में कलकत्ता, वहाँ का जीवन, वर्ग-संघर्ष का बहुधा चित्रण मिलता है। इसके अलावा उनकी लेखनी में पाश्चात्य साहित्य का कई बार सन्दर्भ मिलता है। उनके साहित्य में ऐसे विषयों का उल्लेख है जो उस समय तक कई साहित्यकारों के लिए अछूत अथवा त्यज्य कोटि था। बहुत लम्बे समय तक भारतीय साहित्य में स्त्री से संबंधित विषय तथा उनकी समस्याएं, समाज में शालीनता की ओट में छुपी अश्लीलता और धर्म एवं संस्कृति के नाम स्त्रियों का यौनिक दमन ऐसे विषय रहे हैं जिनसे कई महान लेखकों ने अपना वास्ता दूर रखा। जिन लेखकों ने उन समस्याओं पर लिखना चाहा, उनपर वैचारिक विकृति और सस्ते साहित्य लेखन के आरोप लगे। राजकमल के रचनाकर्म में इन सारे विषयों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्भीकता से साथ किया हुआ चित्रण है। इसी निर्भीकता के फलस्वरूप उनके कई समकालीन साहित्यकारों ने उनके रचनाकर्म को काफी हेय दृष्टि से देखा और उनकी उपस्थिति को दरकिनार किया एवं बहिष्कार किया।