Synopsisत्रिलोचन का काव्य-व्यक्तित्व लगभग पचास वर्षों के लम्बे काल-विस्तार में फैला हुआ है। परन्तु यह तथ्य कि वे हमारे समय के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि हैं—लगभग एक अद्वितीय कवि—अभी पिछले कुछ वर्षों में उभर-कर सामने आया है और उनके प्रत्येक नए काव्य-संकलन के साथ और गहरा तथा और पुष्ट होता गया है। त्रिलोचन एक विषम धरातल वाले कवि हैं। साथ ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में एक विचित्र विरोधाभास भी दिखाई पड़ता है। एक ओर यदि उनके यहाँ गाँव की धरती का-सा ऊबड़खाबड़पन दिखाई पड़ेगा तो दूसरी ओर कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी कसाव या अनुशासन भी।
त्रिलोचन की सहज-सरल-सी प्रतीत होने वाली कविताओं को भी यदि ध्यान से देखा जाए तो उनकी तह में अनुभव की कई परते खुलती दिखाई पड़ेंगी।
त्रिलोचन के यहाँ आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है। अपने बारे में हिन्दी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएँ लिखी हों। पर त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएँ नहीं हैं और यह उनकी गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं। त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन और लगभग प्रवाहच्युत शब्द भी उतनी ही सहजता से कविता में प्रवेश करते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं।
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Binding: PaperBack
About the author
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में जगरदेव सिंह के घर 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. अंग्रेजी की एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री बाजारवाद के धुर विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका कहना था, भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी। शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे। सागर के मुक्तिबोध स्रजन पीठ पर भी वे कुछ साल रहे।
9 दिसम्बर 2007 को ग़ाजियाबाद में उनका निधन हो गया।