Welcome Back !To keep connected with uslogin with your personal info
Login
Sign-up
Login
Create Account
Submit
Enter OTP
Step 2
Prev
Home Literature Novel Kubja Sundari
Enjoying reading this book?
Kubja Sundari
by Thakur Prasad Singh
4.2
4.2 out of 5
Creators
AuthorThakur Prasad Singh
PublisherPratishruti Prakashan
Synopsisकुब्जा सुन्दरी एक ऐसे कवि-लेखक का उपन्यास है, जिसे नियति ने काशी से सुदूर संथाल परगना में फेंक दिया पर उसका जीवन थमा नहीं। जीवन की सतत खोज ने उसे जैसे एक जीवन-लक्ष्य दे दिया आदिवासियों के बीच उनके आदिम उद्वेग को निरखने परखने का। संथाल परगना के प्रवास ने पहले वंशी और मादल (1959) के गीत दिए और कुछ वर्ष अनंतर ही आदिम राग में नहाया, गद्य-नृत्य करता पहला उपन्यास कुब्जा सुन्दरी।
यह उनके स्वत्व की कहानी तो है ही, राग-अनुराग, व्यक्तिगत राग-द्वेष, पारिवारिक दुरभिसंधियों, भय की भुतही स्मृतियों में जागती रातों का लेखा भी है। पुरुषविहीन परिवारों की नियति क्या होती है, यह कथानायक के जीवन-वृत्त से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। कैशोर्य में मिली संज्ञा और सुषमा नाम की दो संज्ञाएं उसके जीवन में छाया की तरह मंडराती रहीं और कथा नायक दोनों से न प्रतिश्रुत हो सका न प्रतिकृत।
काशी ने कभी विद्वानों की कद्र नहीं की। तुलसी हों या कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी हों या नामवर सिंह, काशी ने इन्हें कभी मन से स्वीकार नहीं किया। ऐेसे ही उपेक्षा के शिकार ठाकुर प्रसाद सिंह को काशी की तथाकथित बौद्धिक मंडलियों ने स्वीकार नहीं किया पर वे देवघर जाकर एक नई संज्ञा के रूप में उभरे। उपन्यास का कथानायक ‘मैं’ कोई और नहीं वे ही हैं।
हमारे समय में अनेक प्रेम कहानियाँ लिखी गई हैं, लेकिन कुब्जा सुंदरी की कथा अनन्य है। कहां है गद्य का वह आदिम उद्वेग, वह अनिंद्य उछाह जो इसमें है। कथा में गद्य की ऐसी सुगठित मांंसपेशियां इधर की रचनाओं में देखने को नहीं मिलतीं। यह प्रेम के संगीत की अनूठी स्वरलिपि है जिसमें काशी है, संथाल परगना है, आदिवासियों का सामाजिक ताना-बाना है, ठाकुर प्रसाद सिंह की पीड़ित अंतरात्मा का अपराजेय आख्यान भी है। यहां पग-पग पर भाषा की कोमल संरचना की एक अनन्य झांकी मिलती है जिसकी चितवन में प्रेयसी सा खिंचाव है।
कुब्जा सुन्दरी से गुजरना अपने समय के इतिहासबोध, समाजबोध और स्वत्वबोध से गुजरना है।