Synopsisउषा प्रियंवदा की इन कहानियों को पढ़ना भाषा की एक समतल, शांत और कांच-सी पारदर्शी सतह पर चलना है जो अपनी स्वच्छता से हमें आश्वस्ति देती है ! लेकिन यह सब भाषा तक ही सीमित है; भाषा के भीतर जो कहानी होती है, वह बेहद बेचैन कर देनेवाली है ! इन कहानियों को पढ़ते हुए हम एक ऐसे पाठ से गुजरते हैं जो हमें लगातार सम्पूर्ण का आभास कराता हुआ, एक अधूरी, अतृप्त जिंदगी की कसक साथ-साथ देता चलता है !
एक कोई दूसरा की नीलांजना, जूठा दर्पण की अमृता, कोई नहीं की नमिता, सागर पार का संगीत की देवयानी, पिघलती हुई बर्फ के अक्षय और छवि, चांदनी में बर्फ पर के हेम और मीरा (मेरी) और टूटे हुए की तंत्री त्रिपाठी उर्फ़ टीटी-ये सब पत्र इस भाषा की बर्फ की-सी चमकती सतह के नीचे एक अधूरा और यातनाप्रद जीवन जी रहे हैं ! अपने देश की मिटटी से उखाड़कर बहार किसी संपन्न और पराये मुल्क में ‘अकेला’ और ‘अलग होकर’ रहना इस यन्त्रणा का एक विशिष्ट पहलू है जिसको ये कहानियां लगातार रेखांकित करती हैं !
Enjoying reading this book?
Binding: HardBack
About the author
हिन्दी की विशिष्ट कथाकार।
शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में पी-एच.डी., इंडियाना यूनिवर्सिटी, ब्लूमिंगटन, अमेरिका में तुलनात्मक साहित्य में दो वर्ष पोस्ट-डॉक्टरल अध्ययन शोध। अध्यापन के प्रथम तीन वर्ष दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली, तदुपरान्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दो वर्ष में सम्पन्ना करके, विस्कांसिन विश्वविद्यालय मेडिसन के दक्षिण एशियाई विभाग में प्रोफेसर रहीं। हिन्दी और अंग्रेजी, दोनों ही भाषाओं में समान रूप से दक्ष उषा प्रियम्वदा ने साहित्य सृजन के लिए हिन्दी और समीक्षा अनुवाद और अन्य बौद्धिक क्षेत्रों के लिए अंग्रेजी का चयन किया।
प्रकाशित पुस्तकें : उपन्यास : पचपन खम्भे लाल दीवारें (1961), रुकोगी नहीं राधिका (1966), शेष यात्रा (1984), अन्तर-वंशी (2000), भया कबीर उदास (2007)। कहानी-संग्रह : फिर बसंत आया (1961), जिन्दगी और गुलाब के फूल (1961), एक कोई दूसरा (1966), कितना बड़ा झूठ, मेरी प्रिय कहानियाँ, शून्य एवं अन्य रचनाएँ, सम्पूर्ण कहानियाँ (1997)।
इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य, लोककथा एवं मध्यकालीन भक्ति काव्य पर अनेक लेख, जो अंग्रेजी में समय-समय पर प्रकाशित हुए। मीराबाई और सूरदास के अंग्रेजी अनुवाद साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किए। उन्होंने आधुनिक हिन्दी कहानियों के भी अनुवाद किए।
इंडियन स्टडीज विभाग से संलग्न रहते हुए 1977 में उन्हें 'फुल प्रोफेसर ऑफ इंडियन लिट्रेचर’ का पद मिला। 2002 में अवकाश लेकर अब पूरा समय लेखन, अध्ययन और बागबानी में बिता रही हैं।