Synopsisहिमालय भौगोलिक, भूगर्भिक, जैविक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक विविधता की अनोखी धरती है। इसने एक ऐसी पारिस्थितिकी को विकसित किया है जिस पर दक्षिण एशिया की प्रकृति और समाजों का अस्तित्व टिका है। हिमालय पूर्वोत्तर की अत्यन्त हरी-भरी सदाबहार पहाड़ियों को सूखे और ठण्डे रेगिस्तानी लद्दाख-कराकोरम से जोड़ता है तो सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र के उर्वर मैदान को तिब्बत के पठार से भी। यह मानसून को बरसने तथा मध्य एशिया की ठण्डी हवाओं को रुकने को मजबूर करता है, पर हर ओर से इसने सामाजिक-सांस्कृतिक तथा आर्थिक प्रवाह सदियों से बनाये रखा। इसीलिए तमाम समुदायों ने इसमें शरण ली और यहाँ अपनी विरासत विकसित की। हम भारतीय उपमहाद्वीप के लोग, जो हिमालय में या इसके बहुत पास रहते हैं, इसको बहुत ज़्यादा नहीं जानते हैं। कृष्णनाथ कहते थे कि 'हिमालय भी हिमालय को नहीं जानता है । इसका एक छोर दूसरे को नहीं पहचानता है। हम सिर्फ़ अपने हिस्से के हिमालय को जानते हैं। इसे जानने के लिए एक जीवन छोटा पड़ जाता है। पर इसी एक जीवन में हिमालय को जानने की कोशिश करनी होती है। हिमालय की प्रकृति, इतिहास, समाज-संस्कृति, तीर्थाटन-अन्वेषण, पर्यावरण-आपदा, कुछ व्यक्तित्वों और सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों पर केन्द्रित ये लेख हिमालय को और अधिक जानने में आपको मदद देंगे। बहुत से चित्र, रेखांकन, नक़्शे तथा दुर्लभ सन्दर्भ सामग्री आपके मानस में हिमालय के तमाम आयामों की स्वतन्त्र पड़ताल करने की बेचैनी भी पैदा कर सकती है। व्यापक यात्राओं, दस्तावेज़ों और लोक ऐतिहासिक सामग्री से विकसित हुई यह किताब हिमालय को अधिक समग्रता में जानने की शुरुआत भर है। दास्तान-ए-हिमालय का दूसरा खण्ड उत्तराखण्ड पर केन्द्रित है। इसका पहला लेख उत्तराखण्ड के इतिहास का विहंगावलोकन करता है। दूसरे में बैरीमैन की किताब 'हिन्दूज ऑफ़ द हिमालय' की पड़ताल करने की कोशिश है। तीसरा लेख उत्तराखण्ड में सामाजिक आन्दोलनों की प्रारम्भिक रूपरेखा प्रस्तुत करता है तो चौथा कुली बेगार आन्दोलन का अध्ययन है। पाँचवें अध्याय में टिहरी रियासत के ढंढकों से शुरू सामाजिक प्रतिरोधों के प्रजामण्डल तक पहुँचने की कहानी प्रस्तुत की है। अध्याय छह कफल्टा के शर्मनाक हत्याकाण्ड के बहाने अभी भी बची जातीय कट्टरता और सामन्ती सोच की रिपोर्टिंग है। अगला लेख 1984 के 'नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन' का वर्णन-विश्लेषण है। आठवाँ अध्याय उत्तराखण्ड में पर्यावरण और खेती के रिश्तों पर दिया गया व्याख्यान है। अन्तिम अध्याय उत्तराखण्ड में प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं की दो सदियों की कथा कहता है
Enjoying reading this book?
Binding: Paperback
About the author
तीन दशकों तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में शिक्षक; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फ़ेलो रहे प्रो. शेखर पाठक हिमालयी इतिहास, संस्कृति, सामाजिक आन्दोलनों, स्वतन्त्रता संग्राम तथा अन्वेषण के इतिहास पर यादगार अध्ययनों के लिए जाने जाते हैं। कुली बेगार प्रथा, पण्डित नैनसिंह रावत, जंगलात के आन्दोलनों आदि पर आपकी किताबें विशेष चर्चित रही हैं। आप उन बहुत कम लोगों में हैं जिन्होंने पाँच अस्कोट आराकोट अभियानों सहित भारतीय हिमालय के सभी प्रान्तों, नेपाल, भूटान तथा तिब्बत के अन्तर्वर्ती क्षेत्रों की दर्जनों अध्ययन यात्राएँ की हैं। भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तथा न्यू स्कूल के कैलास पवित्र क्षेत्र अध्ययन परियोजना से भी आप जुड़े रहे। आपके द्वारा लिखी कछ किताबें, अनेक शोध-पत्र तथा सैकड़ों लोकप्रिय रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हिमालयी जर्नल पहाड़ के 20 बृहद् अंकों तथा अन्य अनेक प्रकाशनों का आपने सम्पादन किया है। फिलहाल आप पहाड़ फ़ाउंडेशन से जुड़े हैं और पहाड़ का सम्पादन करते हैं।