Synopsis‘तुम्हारे खमीर में तेजाबियत कुछ ज्यादा है !’ किसी ने इस्मत आप से कहा था ! तेजाबियत यानी कि कुछ तीखा, तुर्श और नरम दिलों को चुभनेवाला ! उनकी यह विशेषता इस किताब में संकलित गद्य में अपने पूरे तेवर के साथ दिखाई देती है ! ‘कहानी’ शीर्षक से उन्होंने बतौर विधा कहानी के सफ़र के बारे में अपने ख़ास अंदाज में लिखा है जिसे यहाँ किताब की भूमिका के रूप में रखा गया है !
‘बम्बई से भोपाल तक’ एक रिपोर्ताज है, ‘फसादात और अदब’ मुल्क के बंटवारे के वक्त लिखा गया उर्दू साहित्य पर केन्द्रित और ‘किधर जाएँ’ अपने समय की आलोचना को सम्बंधित आलेख हैं ! श्रेष्ठ उर्दू गद्य के नमूने पेश करते ये आलेख इस्मत चुगताई के विचार-पक्ष को बेहद सफाई और मजबूती से रखते हैं ! मसलन मुहब्बत के बारे में छात्राओं के सवाल पर उनका जवाब देखिए- ‘एक इसम की जरुरत है, जैसे भूख और प्यास ! अगर वह जिंसी जरुरत है तो उसके लिए गहरे कुँए खोदना हिमाकत है ! बहती गंगा में भी होंट टार किए जा सकते हैं ! रहा दोस्ती और हमखायाली की बिना पर मुहब्बत का दारोमदार तो इस मलक की हवा उसके लिए साजगार नहीं !’
किताब में शामिल बाकी रचनाओं में भी कहानीपन के साथ संस्मरण और विचार का मिला-जुला रसायन है जो एक साथ उनके सामाजिक सरोकारों, घर से लेकर साहित्य और देश की मुश्किलों पर उनकी साफगो राय के बहाने उनके तेजाबी खमीर के अनेक नमूने पेश करता है ! एक टुकड़ा ‘पौम-पौम डार्लिंग’ से, यह आलेख कुर्रतुल ऐन हैदर की समीक्षा के तौर पर उन्होंने लिखा था जिसे जनता और जनता के साहित्य की सामाजिकता पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में पढ़ा जा सकता है ! हैदर साहिबा के पात्रों पर उनका कहना था- ‘लड़कियों और लड़कों के जमघट होते हैं, मगर एक किस्म की बेहिसी तारी रहती है ! हसीनाएँ बिलकुल थोक के माल की तरह परखती और परखी जाती हैं ! मानो ताम्बे की पतीलियाँ खरीदी जा रही हों !’
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Binding: PaperBack
About the author
इस्मत चुग़ताई (जन्म: 21 अगस्त 1915-निधन: 24 अक्टूबर 1991) उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं, उन्हें ‘इस्मत आपा’ के नाम से भी जाना जाता है।
उन्होंने आज से करीब 70 साल पहले पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। उनके अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है। साहित्य तथा समाज में चल रहे स्त्री विमर्श को उन्होंने आज से 70 साल पहले ही प्रमुखता दी थी। इससे पता चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी। उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा और इसी कारण उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं।