Synopsisअर्चना' निराला की परवर्ती काव्य-चरण की प्रथम कृति है! इसके प्रकाशन के बाद कुछ अल्लोचाको ने इसमें उनका प्रत्यावर्तन देखा था! लेकिन सच्चाई यह है कि जैसे ‘बेला’ के गीत अपनी धज में ‘गीतिका’ के गीतों से भिन्न हैं, वैसे ही ‘अर्चन’ के गीत भी ‘गीतिका’ ही नहीं, ‘बेला’ के गीतों से भिन्न हैं! इस संग्रह की समीक्षा करते हुए श्रीनरेश मेहता ने लिखा था कि यह निराला की विनयपत्रिका है! निश्चय ही इसके अधिसंख्यक गीत धर्म-भावना नहीं है! यहाँ हमें मार्क्स की यह उक्ति याद करनी चाहिए: ‘धार्मिक वेदना एक साथ ही वास्तविक वेदना की अभिव्यक्ति और वास्तविक वेदना के विरुद्ध विद्रोह भी है! अकारण नहीं कि ‘अर्चना’ के भक्तिभाव से भरे हुए गीत स्वन्त्रयोत्तर भारत के यथार्थ को बहुत तीखे ढंग से हमारे सामने लाते हैं, यथा ‘आशा-आशा’ मरे/लोग देश के हरे!’ ‘निविड़ विपिन, path ;/भरे हिंस्र जंतु-व्याल’ आदि गीत!
पहेल की तरह ही अनेक गीतों में निराला का स्वर स्पष्तः आत्मपरक है, जैसे ‘तरणी तार दो/अपर पार को!’ ‘प्रिय के हाथ लगाये जगी,/ ऐसी मैं सो गयी अभागी!’ ऐसे सरल प्रेमपरक गीत हमें उनमे पहले नहीं मिलते! प्रकृति से भी उनका लगाव हर दौर में बना रहता है! यह बात ‘आज प्रथम गायी पिक पंचम’ और ‘फूटे हैं आमों में बौरे’ ध्रुव्क्वाले गीतों में दिखलायी पड़ती है!
‘अर्चना’ में ऐसे गीत भी हैं, जो इस बात की सूचना देते हैं कि कवि अब महानगर और नगरों को छोड़कर अपने गाँव आ गया है! उनका कालजयी और अपनी सरलता में बेमिसाल गीत ‘बांधो n नाव इस ठांव, बंधू!/पूछेगा सारा गाँव, बंधु!’ ‘अर्चना’ की ही रचना हैं, जिसमें गाँव की एक घटना के सौन्दर्यात्मक पक्ष का चित्रण किया है!
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Binding: HardBack
About the author
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (21 फरवरी, 1896 - 15 अक्टूबर, 1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
किसी ने उस युग-कवि को ‘महाप्राण निराला’ कहा तो किसी ने उसे ‘मतवाला’ कहा। किसी ने उसे छायावादी युग का ‘कबीर ’कहा तो किसी ने उन्हें ‘मस्तमौला’ कहा । किसी ने उन्हें सांस्कृतिक नवजागरण का ‘बैतालिक’ कहा तो किसी ने उन्हें सामाजिक-क्रान्ति का ‘विद्रोही कवि’ कहा । एक साथ उनके नाम के साथ इतना वैविध्य और वैचित्रय जुटता गया कि इनका जीवन और काव्य दोनों विरोधाभास के रूपक बनते गए। मगर ‘निराला’ सचमुच निराला ही बने रहे। लोगों के द्वारा दिये गये विशेषणों की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। वे एक साथ दार्शनिक भी थे, समाज-सुधारक भी थे, विद्रोही भी थे, स्वाभिमानी भी थे, अक्खड़ भी थे, फक्कड़ भी थे, उदारचेता भी थे और सबसे बढ़कर ‘महामानव’ थे।
युग की पीड़ा और समय का दंश निराला के हृदय को भी सालता रहा और उनके भीतर से शब्द का लावा फूटता रहा। उनके शब्द कहीं अंगार बनकर निकले तो कहीं इन्द्रधनुष बनकर उतरे। इस महान् कवि की जीवन-यात्रा भी फूल और अंगारे के बीच से होकर चलती रही। एक सतत संघर्ष की कहानी उनके जीवन की निशानी बनकर रह गई।