नागार्जुन (30 जून 1911-5 नवंबर 1998 हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। इनके पिता श्री गोकुल मिश्र तरउनी गांव के एक किसान थे और खेती के अलावा पुरोहिती आदि के सिलसिले में आस-पास के इलाकों में आया-जाया करते थे। उनके साथ-साथ नागार्जुन भी बचपन से ही “यात्री” हो गए। आरंभिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से संस्कृत में हुई किन्तु आगे स्वाध्याय पद्धति से ही शिक्षा बढ़ी। राहुल सांकृत्यायन के “संयुक्त निकाय” का अनुवाद पढ़कर वैद्यनाथ की इच्छा हुई कि यह ग्रंथ मूल पालि में पढ़ा जाए। इसके लिए वे लंका चले गए जहाँ वे स्वयं पालि पढ़ते थे और मठ के “भिक्खुओं” को संस्कृत पढ़ाते थे। यहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।
छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली; (हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता नागार्जुन को 1969 में उनके ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने १९९४ में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित भी किया था।
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‘युगधारा’ से ‘इस गुब्बारे की छाया में’ तक का, बल्कि और पीछे जायें तो ‘चना जोर गरम’ और ‘प्रेत का बयान’ आदि कितबिया दौर से अब तक का नागार्जुन का काव्यलोक भारतीय काव्यधारा की कोई डेढ़ हजार साल की परम्परायें अपने में समेटे हुए है कालिदास से टैगोर, निराला तक और कबीर, अमीर खुसरो से नजीर अकबरावादी तक की सभी क्लासिक और जनोन्मुख काव्य-पराम्पराओं से अनुप्राणित त्रिभुवन का यह परम पितामह कवि चार बीसी और चार सौ बीसी का मजाक उड़ाता हुआ आज भी युवजन-सुलभ उत्साह से आप्लावित है-सृजनरत है। इसका जीवंत प्रमाण है बाबा का यह नया संग्रह ‘भूल जाओ पुराने सपने’। वेदना और व्यंग्य से मिली-जुली अभिव्यक्ति वाला यह शीर्षक आज के युग-सत्य पर जितनी सटीक टिप्पणी करता है, वैसी अनेक सटीक, चुटीली और मार्मिक टिप्पणियाँ इस संग्रह की कविताओं से चुनी जा सकती हैं। यथा ‘‘लौटे हो, लगी नहीं झोल/यह भी बहुत है, इतना भी काफी है’’....
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